Monday, 19 August 2013

लाचार दिल

लाचार दिल
आज खुद को,
कितना लाचार महसूस करता है,
कितना बेबस सा,
और बेसहारा सा लगता है.
सबकुछ,
बेमाना सा लगता है,
क्यूँ मुझे आज,
हर अपना बेगाना सा लगता है.
कुछ उलझा हुआ सा,
खुद ही खुद में रहता है,
नासमझ है ये,
हर वक्त खफा सा रहता है.
चाहता है बहना,
स्वछन्द दरिया की तरह,
फिर न जाने क्यूँ,
खुद में बंधा बंधा सा रहता है.
ग़मों की भीड़ में,
तन्हा खड़ा,
लड़खराता हुआ,
चोट सहता रहा,
ना जाने इस,
अँधेरे रास्ते पर,
किस मंजिल की तरफ,
यूँही चलता चला जा रहा है.
कुछ गुबार मन में,
दबा रखे हैं इसने,
आंसुओ के सैलाब,
छुपा रखे हैं शायद,
शायद इसके लफ्ज,
कुछ कहना चाहते हैं,
पर क्यूँ,
हर वक्त सहमा सहमा सा रहता है.
नहीं समझ पाया,
मैं खुद ही,
अपने दिल का,
मुस्कुराता हुआ सा चेहरा,
जाने क्या हुआ है इसको,
'जाने क्यूँ ये ऐसा रहता,
जाने कौन सा दर्द,
मुस्कराहट बनके इसके लबों पे
पड़ा सा रहता है.
कुंदन
विद्यार्थी

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